श्रम का भीड़तंत्र : 2

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप

हमारे देश में कृषकों के पास बड़ी मात्रा में भूमि उपलब्ध होने के बावजूद ‘कृषि योग्य भूमि’ अत्यंत सीमित है। अत: समस्त भूमि को ‘कृषि योग्य अथवा अन्य रोज़गार योग्य’ तैयार करने की राष्ट्रीय योजना तैयार करना अत्यंत आवश्यक है जिसका क्रियान्वयन ग्राम सभाओं के माध्यम से किया जाना आवश्यक है।

समस्या का दूसरा सिरा उन महानगरों व नगरों से जुड़ा है जहाँ अभी तक उपस्थित औद्योगिक इकाइयों में यही श्रमिक कार्यरत थे किंतु उनकी घर वापसी के पश्चात कारखाने तो खुले किंतु उन्हें समुचित तरीके से चलाने वाला कोई नहीं। प्रश्न वहाँ भी बड़े-बड़े हैं। पहला, वर्षों से संचालित इन औद्योगिक इंड्रस्ट्रीज़ के पास आखिर ऐसी कोई ठोस योजना क्यों नहीं थी जो किसी ऐसी आपात्कालीन स्थिति में अपने श्रमिकों को माह दो माह के लिये अतिरिक्त ‘कुशन’ की सुविधा दे सके।

निर्माण विभाग के कामगरों के लिये बनाये गये कानून के अंतर्गत प्रोजेक्ट की कुल कीमत का एक प्रतिशत का फंड जो कामगरों की सुरक्षा व बीमा से संबद्ध है, का प्रयोग आखिर किन परिस्थितियों में किया जाना अपेक्षित हेै अथवा किसी अन्य फंड की व्यवस्था क्यों नहीं की गई। दूसरा, अपने गाँवों से बेहतर रोज़गार की परिस्थितियों में भी अर्जित धन का सौ प्रतिशत खर्च कर देने का विकृत अर्थशास्त्र आखिर श्रमिकों ‌पर कब तक‌ हावी रहेगा और दसियों वर्षों के अनवरत रोज़गार की उपलब्धता के बावजूद एक-दो माह का आर्थिक कुशन तैयार करने के प्रति गैरज़िम्मेदाराना रवैया क्या श्रमिकों  ‘रोज़ कमाने रोज़ खाने’ की प्रवृत्ति को क्लीन चिट दी‌जा सकती है? क्या ‘सब उड़ा देना और कभी कुछ नहीं बचाना’ का समीकरण उचित था। प्राय: पाया गया है कि जिस दिन श्रमिक अपने दैनिक खर्चों से अधिक कमा भी लेता है, वह उसे शराब, जुआ व मनोरंजन पर खर्च कर देता है और आपातकाल से निबटने का सारा दायित्व अपने नियोक्ता अथवा सरकार पर छोड़ देता है। क्या यह मानसिकता वर्तमान की त्रासदी के लिये जिम्मेदार नहीं है?

हमारा श्रम भी संगठित व अंगठित क्षेत्रों में बँटा हुआ है। असंगठित क्षेत्र की स्थिति तो और भी भयावह है। इस क्षेत्र के श्रमिक देश के नगरों व कस्बों के हर बड़े चौराहों पर रोज़ सुबह रोज़गार की आशा में एक बड़ी भीड़ के रूप में एकत्रित होते हेैं और उनमें से अधिकांश काम न मिल पाने के कारण हाथ मलते हुये वापस घर लौट जाते हैं। घोर अनिश्चितता में जीता हुआ यह वर्ग नित्य प्रति हमारी सामाजिक विफलता की कहानी हमें सुनाता हेै किंतु हमारे पास उनके लिये कहीं कुछ नहीं है। किसी केंद्रीय अथवा प्रांतीय बजट में कभी कोई हिस्सेदारी उनके लिये नहीं होती। यह एक ऐसा वर्ग है जिसके लिये देश की किसी भी थाली में एक भी निवाला सुरक्षित नहीं है।

आज हमें यह समझना ही होगा कि जब तक हम कृषि व औद्योगिक क्षेत्र में सुनियोजित विकास की ठोस योजनाएं नहीं बनाते हैं और पूरी ईमानदारी से उन्हें ज़मीन पर नहीं उतारते हैं, विश्व की पाँचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का हमारा दावा अथवा स्वप्न किसी राजनीतिक स्लोगन से अधिक कुछ नहीं है।

जहाँ तक कृषि क्षेत्र की बात है, उसके संबंध में कुछ सारभूत तत्वों पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है –

जब हम एक कृषि प्रधान देश हैं तो एक कृषक को हमारे अपने ही देश में अत्यंत दयनीय दृष्टि से क्यों देखा जाता है और हम कृषक होने पर गर्व अनुभव क्यों नहीं कर पाते हैं? आखिर वे कौन सी सामाजिक परिस्थितियां हैं जो एक कृषि प्रधान व्यवस्था में एक कृषक को ‘बेचारा’ बना देती हैं? यह एक विचारणीय प्रश्न है कि कृषक के लिये देश में कैसे अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण किया जा सके।

कृषि को एक मज़बूत इंड्रस्ट्री कैसे बनाया जाये और पूर्ण रूप से असंगठित इस क्षेत्र को कैसे संगठित क्षेत्र बनाया जा सके। सारे देश के कृषकों को प्रादेशिक, जनपदीय व ब्लाक स्तर पर पंजीकृत करना आवश्यक है तथा यह भी आवश्यक है कि उन्हें कृषि के विकास के लिये निर्धारित योजनाओं व बीमा संबंधी योजनाओं से सीधा जोड़ा जाये। ग्रामसभा के स्तर पर प्रोविडेंट फंड्स जैसी वार्षिक बीमा योजनाओं के माध्यम से कृषि की अनिश्चितता को सीमित करने का प्रयास करना अत्यंत आवश्यक है।

कृषकों के लिये सामुदायिक सुविधाओं हेतु ‘ग्रीन कार्ड’ जैसी योजनाओं के माध्यम से स्वास्थ्य संबंधी, शिक्षा संबंधी व अर्थ संबंधी लाभ उपलब्ध कराना अत्यंत आवश्यक है। प्राय: देखा गया है कि किसान क्रेडिट कार्ड अथवा अन्य कृषि संबंधी ऋण में योजना का अधिकांश स्थानीय लाभ अनेक भ्रष्ट बैंक अधिकारियों व लोकल दलाल तंत्र के मध्य बँट जाता है और ऋण के भुगतान का संपूर्ण दायित्व कृषक के सिर पर रहता है और फलस्वरूप इस व्यापक षड्यंत्र का शिकार होकर उसके पास आत्महत्या के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प शेष नहीं रहता है। कागज़ों में पैसा खूब दौड़ता दिखाई देता है किंतु वह अपने निर्धारित गंतव्य पर कभी नहीं पहुँचता और कृषि, जिसके विकास के लिये पैसों की यह यात्रा प्रारंभ हुई थी, उसे तो ऐसी किसी योजना के बारे में कभी पता ही नहीं होता।  ऐसे दलालतंत्र व अपराधियों के विरुद्ध कठोर कानून बना कर इस प्रवृत्ति को जड़ से समाप्त करने हेतु राष्ट्रीय कटिबद्धता आज समय की मांग है।

अधिकांश ग्राम सभाओं की भूमि में वे भूमि भी प्रचुर रूप से सम्मिलित हैं जिन्हें कृषि योग्य नहीं समझा जाता है। ऐसी भूमि को कृषि योग्य बना कर उस ग्राम सभा के पंजीकृत कृषकों द्वारा सामूहिक श्रमदान के माध्यम से कृषि कराना व उत्पादन को किसी प्राकृतिक आपदा अथवा मौसम की अनियमितता के कारण फसलों के नष्ट होने के कारण किसी राष्ट्रीय योजना के माध्यम से प्रत्येक प्रभावित कृषक के परिवार को प्रति माह मुफ्त पर्याप्त अनाज की उपलब्धता सुनिश्चित करना ताकि ऐसी विषम परिस्थितियों में भी जीवित रहा जा सके और कृषक अपनी कृषि से जुड़ा रह सके। यदि ऐसी भूमि के किसी अंश को खेती के लिये अनुकूल बना पाना संभव न हो तो उसपर मछली पालन, मुर्गी पालन अथवा अन्य योजनाओं के माध्यम से ऐक्टिव कर समुचित धनोपार्जन की योजनाएं बननी चाहिए ।

हमारे देश में कृषकों के पास बड़ी मात्रा में भूमि उपलब्ध होने के बावजूद ‘कृषि योग्य भूमि’ अत्यंत सीमित है। अत: समस्त भूमि को ‘कृषि योग्य अथवा अन्य रोज़गार योग्य’ तैयार करने की राष्ट्रीय योजना तैयार करना अत्यंत आवश्यक है जिसका क्रियान्वयन ग्राम सभाओं के माध्यम से किया जाना आवश्यक है।

प्राय: पाया गया है कि हमारे कृषक वार्षिक चक्र वाली फसलों पर आश्रित हैं और यदि किसी कारण से उनकी फसल खराब हो जाती है तो उनका व उनके परिवार का भविष्य दाँव पर लग जाता है। आवश्यक है कि कृषक कम समय में तैयार होने वाली व्यावसायिक फसलों की खेती करना सीखें और वर्ष में अनेक फसलें उगाकर अपनी असुरक्षा के प्रतिशत में नित्य कमी करते जायें। लंबे समय की फसलों के साथ अन्य अल्पकालीन फसलें उगाई जा सकती हैं, इन विकल्पों को शीघ्रता से अपनाने की आवश्यकता है।

आधुनिक तकनीक व वैज्ञानिक कृषि के लिये समय-समय पर नि:शुल्क वर्कशॉप करके कृषकों को नयी तकनीकों व सुविधाओं की जानकारी देना अत्यंत आवश्यक है। ऐसी समस्त सुविधायें प्राथमिक स्तर पर सरकार द्वारा नि:शुल्क होनी चाहिए।

प्राय: यह भी पाया गया है कि कृषकों के मध्य कृषि योग्य भूमि अत्यंत छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट गयी है जिसके कारण न केवल फसल की मात्रा ही प्रभावित हुई है बल्कि कृषि की लागत भी अत्यंत महंगी हो चली है। इन परिस्थितियों में सामूहिक कृषि या ‘कान्ट्रैक्टेड फार्मिंग’ सर्वश्रेष्ठ विकल्प है और उसका उचित प्रचार व प्रसार तथा क्रियान्वयन आवश्यक है।

स्थानीय स्तर पर कृषि समूहों का निर्माण करके कृषि में प्रयुक्त होने वाले बीजों व औषधियों की बड़ी खरीद करके बड़ी बचत की जा सकती है।

यह व्यवस्था होनी चाहिए कि किसी भी कृषक को अपने उत्पादन को बेचने के लिये किसी बाज़ार व मंडी में न जाना पड़े बल्कि निर्धारित वितरण व विक्रय चैनलों द्वारा फसल की बिक्री उनके अपने खेतों से फसल का पूर्ण निर्धारित मूल्य अग्रिम भुगतान के रूप में कृषक के बैंक खाते में प्राप्त करने के बाद ही सम्पन्न हो ताकि कृषक के आर्थिक हित सुरक्षित रहें।

कृषि क्षेत्र में भ्रष्टाचार की सरकारी व वैयक्तिक संभावनाओं को समाप्त करने के उद्देश्य से सरकारी कर्मचारियों व अधिकारियों की कार्य प्रणाली व एकाउंटिंग की साप्ताहिक समीक्षा सरकार द्वारा मनोनीत सरकारी संस्थाओं व ईमानदार वैयक्तिक इकाइयों की संयुक्त समिति द्वारा किया जाना चाहिए ताकि किसी भी बेईमानी को तुरंत पकड़ा जा सके और उस पर ‘फास्ट ट्रैक’ पद्धति से प्रभावी कार्यवाही हो सके।

TO BE CONTINUED…..

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